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मृ॒गो न भी॒मः कु॑च॒रो गि॑रि॒ष्ठाः प॑रा॒वत॒ऽआ ज॑गन्था॒ पर॑स्याः। सृ॒कꣳ स॒ꣳशाय॑ प॒विमि॑न्द्र ति॒ग्मं वि शत्रू॑न् ताढि॒ वि मृधो॑ नुदस्व ॥७१ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

मृ॒गः। न। भी॒मः। कु॒च॒र इति॑ कुऽच॒रः। गि॒रि॒ष्ठाः। गि॒रि॒स्था इति॑ गिरि॒ऽस्थाः। प॒रा॒वतः॑। आ। ज॒ग॒न्थ॒। पर॑स्याः। सृ॒कम्। स॒शायेति॑ स॒म्ऽशाय॑। प॒विम्। इ॒न्द्र॒। ति॒ग्मम्। वि। शत्रू॑न्। ता॒ढि॒। वि॒। मृधः॑। नु॒द॒स्व॒ ॥७१ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:18» मन्त्र:71


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

राजपुरुषों को कैसा होना चाहिये, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (इन्द्र) सेनाओं के पति ! तू (कुचरः) कुटिल चाल चलता (गिरिष्ठाः) पर्वतों में रहता (भीमः) भयङ्कर (मृगः) सिंह के (न) समान (परावतः) दूरदेशस्थ शत्रुओं को (आ, जगन्थ) चारों ओर से घेरे (परस्याः) शत्रु की सेना पर (तिग्मम्) अति तीव्र (पविम्) दुष्टों को दण्ड से पवित्र करनेहारे (सृकम्) वज्र के तुल्य शस्त्र को (संशाय) सम्यक् तीव्र करके (शत्रून्) शत्रुओं को (वि, ताढि) ताड़ित कर और (मृधः) सङ्ग्रामों को (वि, नुदस्व) जीत कर अच्छे कर्मों में प्रेरित कर ॥७१ ॥
भावार्थभाषाः - जो सेना के पुरुष सिंह के समान पराक्रम कर तीक्ष्ण शस्त्रों से शत्रुओं के सेनाङ्गों का छेदन कर सङ्ग्रामों को जीतते हैं, वे अतुल प्रशंसा को प्राप्त होते हैं, इतर क्षुद्राशय मनुष्य विजयसुख को प्राप्त कभी नहीं हो सकते ॥७१ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

राजजनैः कीदृशैर्भवितव्यमित्युपदिश्यते ॥

अन्वय:

(मृगः) मृगेन्द्रः सिंहः (न) इव (भीमः) बिभेत्यस्मात् सः (कुचरः) यः कुत्सितां गतिं चरति सः (गिरिष्ठाः) यो गिरौ तिष्ठति सः (परावतः) दूरदेशात् (आ) समन्तात् (जगन्थ) गच्छ। अत्र पुरुषव्यत्ययः। अन्येषामपि० [अष्टा०६.३.१३७] इति दीर्घश्च (परस्याः) शत्रूणां सेनाया उपरि (सृकम्) वज्रतुल्यं शस्त्रम्। सृक इति वज्रनामसु पठितम् ॥ (निघं०२.२०) (संशाय) सम्यक् सूक्ष्मबलान् कृत्वा (पविम्) पुनाति दुष्टान् दण्डयित्वा येन तम् (इन्द्र) सेनाध्यक्ष (तिग्मम्) तीक्ष्णीकृतम् (वि) (शत्रून्) (ताढि) आजहि (वि) (मृधः) (नुदस्व) ॥७१ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे इन्द्र ! त्वं कुचरो गिरिष्ठा भीमो मृगो न परावत आजगन्थ परस्यास्तिग्मं पविं सृकं संशाय शत्रून् विताढि मृधो विनुदस्व च ॥७१ ॥
भावार्थभाषाः - ये सेनापुरुषाः सिंहवत् पराक्रम्य तीक्ष्णैः शस्त्रैः शत्रुसेनाङ्गानि छित्त्वा सङ्ग्रामान् विजयन्ते, तेऽतुलां प्रशंसां प्राप्नुवन्ति, नेतरे क्षुद्राशया भीरवः ॥७१ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - ज्या सेनेतील पुरुष सिंहाप्रमाणे पराक्रम करून तीक्ष्ण शस्रांनी शत्रूसेनेला नष्टभ्रष्ट करून लढाई जिंकतात ते अत्यंत प्रशंसा करण्यायोग्य असतात. इतर क्षुद्र माणसे कधीच विजय प्राप्त करू शकत नाहीत.